बांझीन औरत का दर्द

बांझ शब्द ही हमे झकझोरता है
यह मेरे मन को कचोटता है
यह रोती चीखती असहाय अबला के दर्द को दर्शाता है।
यह उसकी छुपी अंतर्वेदना के भेंद को खोलता है।
हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा के जल को पवित्र कहते है।
हम उस देश के वासी है जहां सबके लिए एक सामान सूर्य निकलता है
हम उस देश के वासी जहा हिंदू मुस्लिम सब में भाई और बहन सी बंधुता है।
लेकिन दुख तब होता है जब हम बांझीन को समाज छूत जब कहता है
चूडी बेच के पेट पालती हूंँ माँ
सबके ताने सह के दिन काटती हूंँ माँ
मेरे हाथो से चूड़ी पहन के सब सुहागन पूजा कर फल पाती है माँ
फिर भी सारा समाज हमे अशुभ मनहूस बुलाता है मांँ
अब दुख सहन नही होता है मांँ
जब सब बांझीन बोले तो बहुत दुख होता है मांँ
मै बांझीन हूंँ शायद यही मेरी गलती है माँ
इस मनहूस पापिन की कहा कोई गिनती है माँ
पानी पीने गई कुएं पे से भगाया गया
सत्यानाश हो तेरा, तेरे छूने से कुएं का जल सुख जाएगा ऐसा मुझे बताया गया
मेरी कोख सुनी है शायद यही मेरी गलती है 
कुलच्छिनी भाग यहां से क्यूं यहां बैठी है
पूजा में कभी शामिल ना होना
कभी कोई संतान तुझे कभी होना
अपनी नजरे इधर ना फेरना
 यू कभी रास्ता ना घेरना
जब जब मैं किसी गर्भवती स्त्री को देखती हूंँ
सपनो के परदे में अपने बच्चे के चेहरे को बुनती हूंँ
जब जब आंँगन में लोगों के बच्चों को देखती हूंँ
तब तब ममता के आंँचल में उन्हें लेने को सोचती हूंँ
अपने अचरा से मुंँह छिपाती हूंँ
कमरे में जाके अश्कों को तकिया से छिपाती हूं
आज देवर का बच्चा मुस्कुराया था ना मांँ
मैने बस भर गोद में उसे उठाया था ना मांँ
देवर ने कस के तमाचा लगाया था ना मांँ
हट बांझिन अपने हाथ से बच्चा उठाना ना 
अपनी परछाई मेरे बच्चे पे लगाना ना 
शायद मेरा हाथ अशुभ है ना मांँ
सासू मांँ ने बोला पूजा में हाथ लगाना ना
बगल की पड़ोसी ने कहा अपना मनहूस चेहरा दिखाना ना
किसका चेहरा सुबह सुबह देख लिया
अपना पूरा दिन जैसे बरबाद सत्यानाश कर लिया
हर वक्त ससुराल से निकाले जाने का डर रहता है माँ
पति कही दूसरी शादी ना करले ऐसा डर लगा रहता है माँ
अब हर पल समाज से डर लगता है मांँ
अब ससुराल के लोग ना पास आते है मांँ
पति भी दूर से ही कतराते है मांँ
आज रिश्तेदार के यहां गोद भराई मनाया गया
मुझे बांझीन बोल दूर से धक्का देकर भगाया गया
बांझ के हाथ से बच्चो को खाना खिलाना ना
निवाला जहर बन जायेगा कोई शुभ काम कराना ना
आज सामने ललिता भाभी को सुना बच्चा हुआ है
मेरे आंँखो से आज फिर से अश्क निकला है
काश इस बांझीन की गोद भी भर जाती
तब समाज के इस तीखे कटाक्ष से मैं सुरक्षित रह पाती
अब ये बांझीन अश्क पोछती है
अपने दर्द को अपनी झोली में समेटती है।
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राजेश बनारसी बाबू
उत्तर प्रदेश वाराणसी
स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना

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14 Comments

Gunjan Kamal

16-Nov-2022 07:50 PM

शानदार प्रस्तुति 👌🙏🏻

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धन्यबाद सर

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Haaya meer

13-Nov-2022 06:51 PM

Superb 👍👍

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यथार्थ चित्रण आज के परिवेश में बाँझ के साथ होने वाले अनुचित व्यवहार की

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